मुसलमान जिस तरह से लालू पर भरोसा करते थे, क्या उसी तरह से तेजस्वी पर कर रहे हैं?
क्या बिहार विधानसभा चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी एक बड़ा फैक्टर साबित होंगे?
बिहार विधानसभा चुनाव में कवरेज के दौरान जिन पत्रकारों ने इन 2 सवालों के जवाब तलाश लिए हैं उन्हें यह पता है कि इस बार बिहार का मुसलमान किसे वोट देगा. लालू राजनीति में संघर्ष के दम पर आए थे. बिहार के मुख्यमंत्री तब बने, जब भागलुपर में कुछ ही महीने पहले दंगे हुए थे. मंडल आयोग की सिफ़ारिशें लागू होने के बाद जातीय टकराव बढ़ गया था. दूसरी तरफ़, आडवाणी रथ यात्रा पर भी निकल गए थे. लालू ने अल्पसंख्यकों को आश्वस्त किया कि उनके रहते कोई दंगा नहीं हो सकता और होने भी नहीं दिया. लालू ने ऐसा कर दिखाया था. अब तेजस्वी उसी राजनीति को आगे बढ़ाने की बात कर रहे हैं. ज़ाहिर है दोनों में फ़र्क है. तेजस्वी को अभी साबित करना है, जबकि लालू को इस मामले में साबित नहीं करना है.
आरजेडी के अलावा क्या है विकल्प?
राष्ट्रीय जनता दल मुसलमानों के लिए कोई आदर्श पार्टी नहीं है, लेकिन यह कहना भी गलत नहीं होगा कि आज की तारीख़ में मुसलमानों के लिए बिहार में आरजेडी से अच्छी पार्टी कोई है भी नहीं. आरजेडी में तमाम ख़ामियाँ हैं, लेकिन उसने सत्ता में रहते हुए सांप्रदायिक राजनीति को लेकर एक स्टैंड लिया है और इसे स्वीकार करना चाहिए. दूसरी और अहम बात यह है मुसलमानों के पास बीजेपी को सत्ता में आने से रोकने के लिए आरजेडी के पास जाने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है. हालांकि जेडीयू ने भी इस 11 मुसलमान उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं. लेकिन यह महज खानापूर्ति पर लगता है. वहीं दूसरी तरफ असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी भी बिहार चुनाव में मुसलमान वोटों को अपने पाले में छटकने की कोशिशों में लगी है.
क्या सीमांचल में ओवैसी की एंट्री से ये हलचल और बढ़ी है? ओवैसी कहते हैं कि आज़ादी के बाद से ग़ैर-बीजेपी पार्टियाँ मुसलमानों का वोट लेती रहीं, लेकिन किया कुछ नहीं. बिहार के मुसलमानों के बीच से नेतृत्व पैदा करने की ज़रूरत है और मेरी पार्टी वही काम कर रही है. लेकिन क्या बिहार और सीमांचल के मुसलमान हैदराबाद की एक पार्टी को अपना समर्थन देंगे?
आंकड़े क्या कहते हैं?
किशनगंज बिहार का एकमात्र ज़िला है, जहाँ हिंदू अल्पसंख्यक हैं. यहाँ मुसलमानों की आबादी 67.98 फ़ीसदी है. आसपास के ज़िलों में भी मुसलमानों की आबादी अच्छी ख़ासी है. कटिहार में 44.47 फ़ीसदी, अररिया में 42.95 फ़ीसदी और पूर्णिया में 38.46 प्रतिशत मुसलान हैं. इन इलाक़ों को सीमांचल के नाम से जाना जाता है. सीमांचल कथित सेक्युलर पार्टियों के लिए वोट बैंक के लिहाज से काफ़ी अहम रहा है, लेकिन कई अहम मामलों में यह काफ़ी पिछड़ा हुआ है. जनगणना के डेटा अनुसार किशनगंज, पूर्णिया, कटिहार और अररिया की औसत साक्षरता दर 54 फ़ीसदी है, जबकि बाक़ी बिहार में ये 64 फ़ीसदी है. किशनगंज में 68 फ़ीसदी मुसलमानों की आबादी है, जिनमें से 50 फ़ीसदी ग़रीबी रेखा के नीचे ज़िंदगी गुज़ारते हैं.
तो किस तरफ जाएगा मुसलमान?
बिहार में मुसलमानों की आबादी लगभग 17 फ़ीसदी है. पिछले पाँच-छह सालों में ऐसी कई चीज़ें हुई हैं, जिनसे केंद्र की मोदी और बिहार की नीतीश सरकार पर से भरोसा कम हुआ है. वहीं जनता दल (यूनाइटेड) और कांग्रेस के बड़े धर्मनिरपेक्ष गठबंधन को 2015 के चुनाव में 69 प्रतिशत मुसलमान मतदाताओं का साथ मिला, जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में 89 प्रतिशत मुसलमानों ने राजद गठबंधन को वोट दिया था.
2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में ओवैसी की पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई. 2019 के लोकसभा चुनाव में किशनगंज में ओवैसी की पार्टी ने पूरा ज़ोर लगा दिया, लेकिन एक बार फिर से निराशा हाथ लगी. सीमांचल में कुल 23 विधानसभा और चार लोकसभा सीटें हैं. ऐसे में इस बार मुसलमान किसे अपना वोट देगा यह इस बात से तय होगा कि बीजेपी प्रत्याशी को कौन सी पार्टी का उम्मीदवार हराएगा. लेकिन फिर भी यह कहा जा सकता है बिहार का मुसलमान अभी असमंजस की स्थिति में है.
यह भी पढ़ें:
- सिलिकॉन वैली पहुँचा JOIST, वैश्विक संबंधों को विस्तार देने की कोशिश!
- क्या खत्म हो गई है पीएम मोदी और ट्रम्प की दोस्ती?
- मुश्किल में बीजेपी नेता विकास गर्ग, गाज़ियाबाद कोर्ट ने कहा- “दोबारा जाँच करके रिपोर्ट पेश करे पुलिस” जानिए क्या है पूरा मामला?
- क्या है लॉकबिट जिसने पूरी दुनिया में तबाही मचा रखी है?
- शिवपाल सिंह यादव को अखिलेश ने दी मुश्किल मोर्चे की जिम्मेदारी, जानिए बदायूं से क्यों लाड़वा रहे हैं लोकसभा चुनाव?
अपनी राय हमें rajniti.on@gmail.com के जरिये भेजें. फेसबुक और यूट्यूब पर हमसे जुड़ें |