पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के मौन को लेकर उनकी आलोचना करने वाले क्या यह बात जानते हैं कि चुनावी मंच ऊपर बहुत ज्यादा बोलने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संसद में पिछले 6 सालों में सिर्फ 22 बार बोले हैं.
क्या संसद राष्ट्र के मुद्दों पर बहस की जगह नहीं रह गई है? मोदी सरकार में यह सवाल पूछना इसलिए जरूरी हो जाता है क्योंकि पीएम मोदी संसद में किसी भी सवाल का जवाब देना जरूरी नहीं समझते. उनके कार्यकाल के आंकड़े बताते हैं कि उन्होंने मन की बात, चाय पर चर्चा और चुनावी भाषणों में जितना बोला है उसका आधा भी संसद में नहीं बोला. और इस मामले में वह पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से भी बहुत पीछे हैं. अंग्रेज़ी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस में छपे एक कॉलम के अनुसार पिछले छह साल में मोदी ने संसद में केवल 22 बार बोला है. क्रिस्टॉफ़ ज़ाफ़रलू और विहांग जुमले की संयुक्त बाइलाइन से छपे एक लेख में कहा गया है कि मोदी सरकार संसद को नज़रअंदाज़ कर रही है.
संसद में बोलने के मामले में मनमोहन सिंह पीएम मोदी से कहीं आगे हैं
बीजेपी के ही अटल बिहारी वाजपेयी ने भी छह सालों में 77 बार संसद को संबोधित किया था जबकि दस सालों तक प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह ने 48 बार संसद में अपनी बात रखी थी. लेख के अनुसार एचडी देवगौड़ा जो सिर्फ़ क़रीब दो साल के लिए प्रधानमंत्री थे, उन्होंने भी संसद में मोदी से ज़्यादा बार बोला था. संसद में पीएम मोदी के बोलने के आंकड़े बताते हैं कि वह संसद के बजाय सीधे लोगों से संवाद करने में विश्वास रखते हैं चाहे वो रेडियो के ज़रिए ‘मन की बात’ हो या फिर सोशल मीडिया के ज़रिए सीधे लोगों से जुड़ना. लेकिन संदेश देने के इन दोनों ही तरीक़ों में एक चीज़ समान है, और वो यह कि मोदी एकतरफ़ा संदेश देने में यक़ीन रखते हैं जिसमें सुनने वाला उनसे कोई सवाल नहीं कर सकता. तो क्या यह कहना गलत नहीं होगा कि पीएम मोदी सवालों से डरते हैं? क्योंकि अगर सवालों से डर नहीं है तो संसद को नजरअंदाज उन्होंने क्यों किया?
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