सुकर्णो, नासर, टीटो आदि ने अपनी लोकप्रियता का क्या किया? देश के धीमेपन से असंतुष्ट जवाहरलाल के सामने क्या यह विकल्प नहीं रहा होगा कि लोकतंत्र को एक तरफ रखकर कुछ साल चाबुक चलाया जाए.
आजादी के बाद के 17 वर्षों में वे भारत के प्रधानमंत्री नहीं होते, तो आज भारत का सामाजिक और राजनीतिक भूगोल वह नहीं होता जो आज है. तब इस देश की राजनीति के नदी, पहाड़ और जंगल सब अलग हो जाते, और हम मानो एक अलग ग्रह पर सांस ले रहे होते. जवाहरलाल नेहरू न होते तो भारत कैसा होता, इस सवाल को टटोलते हुए यह लेख चर्चित पत्रकार राजेंद्र माथुर ने 1989 में उनकी जन्म शताब्दी के मौके पर लिखा था. आज नेहरू की पुण्यतिथि पर हम एक बार फिर से उन्हें याद कर रहे हैं.
आज की अगर परिस्थितियों में देखे हैं तो भारत को नेहरू जैसे प्रधानमंत्री की जरूरत है. कोरोनावायरस ने देश के आर्थिक ढांचे को तहस-नहस कर दिया है. हालात कमोवेश वैसे ही हैं जैसे आजादी के वक्त थे. अर्थव्यवस्था चरमरा गई है, लाखों मजदूर पैदल ही हजारों किलोमीटर सफर के लिए मजबूर हैं और सरकार के पास कोई भी पुख्ता प्लानिंग नहीं है. ऐसे में जब हम नेहरू को याद कर रहे हैं तो हमें यह भी जानना चाहिए कि आजादी के बाद भारत के अर्थव्यवस्था को बनाने के लिए देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने क्या किया था?
चर्चित राजेंद्र माथुर ने अपने लेख में लिखा है, कांग्रेस की आर्थिक दृष्टि न गांधीवादी थी, न नेहरूवादी थी. इसलिए कुछ राज्यों के जमींदारी उन्मूलन कार्यक्रमों को छोड़ दें, तो भारत के तत्कालीन मुख्यमंत्रियों में हम किसी आर्थिक लक्ष्य की ओर तेजी से बढ़ने की कोई छटपटाहट नहीं पाते. अपनी कुरसी पर बैठ पाना ही उनके लिए इतिश्री थी. इसलिए कई जगह कांग्रेस का राज पुलिस-राज होता जा रहा था. सिर्फ नेहरू में देश के पिछड़ेपन का एहसास था, एक दृष्टि थी, और छटपटाहट थी. गांधी की तरह एक सेवामुखी कांग्रेस तो उन्होंने नहीं बनाई, और न कम्यूनिस्टों की तरह एक समर्पित काडर तैयार किया, लेकिन अपनी लोकतांत्रिक सरकार की सारी शक्ति उन्होंने विकास के एक मॉडल पर अमल करने के लिए झोंक दी. बड़े बांध, सिंचाई योजनाएं, अधिक अन्न उपजाओ, वन महोत्सव, सामुदायिक विकास, राष्ट्रीय विस्तार कार्यक्रम, पंचवर्षीय योजना, भारी उद्योग, लोहे और बिजली और खाद के कारखाने, नए स्कूल और अफसर, लाखों सरकारी नौकरियां, समाजवादी समाज संरचना – यह सारा सिलसिला जवाहरलाल नेहरू की अदम्य ऊर्जा से शुरू हुआ.
नेहरू की समाजवादी दृष्टि का यहां भारत के मध्यमवर्ग की आकांक्षाओं के साथ गजब का मेल हुआ. स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेकर भारत पर राज करने वाला यह मध्यम वर्ग विचारों से समाजवादी था, लेकिन संस्कारों से उसे ऐसी सुरक्षित नौकरी की जरूरत थी, जिसमें पहली तारीख को वेतन मिल जाए लेकिन अपनी सफेद कॉलर मैली न करनी पड़े. कल-कारखानों से, व्यवसाय-प्रबंध से, उत्पादकता की चुनौतियों से हाथ काले करने वाले हुनर से उसे कोई लगाव नहीं था. उसे सिर्फ निगरानी और अफसरी की चाह थी, जो समाजवाद के अंतर्गत शुरू हुई परमिट-लायसेंस-कोटा प्रणाली ने पूरी की. समाजवाद ने कभी अपनी कमाई न बताने वाले भारत के बनियों को प्रेरित किया कि वे भारत के प्रायवेट सेक्टर का विकास चोरी-चोरी, काले धन का निर्माण करते हुए करें.
लेकिन नेहरू के जमाने में यदि इन्फ्रास्ट्रक्चर पर इतना धन खर्च न हुआ होता, यदि भारी उद्योग की नींव न पड़ी होती, यदि रासायनिक खाद के कारखाने न खुले होते, तो क्या अस्सी के दशक की अभूतपूर्व, राजीवयुगीन समृद्धि यह देश देख पाता? भारत के देसी पूंजीपतियों में तो यह सामर्थ्य नहीं थी कि मल्टीनेशनल कंपनियों की मदद के बगैर वे भारत को आत्मनिर्भर समृद्धि के इस बिंदु तक पहुंचा पाते.
चीन और रूस के उदाहरणों से स्पष्ट है कि करोड़ों लोगों को जेल में ठूंसे बगैर, या जान से मारे बगैर या उन्हें सजा काटने के लिए अरुणाचल भेजे बगैर जो आतंकविहीन, आर्थिक सरप्लस भारत ने पैदा किया है, और इस सरप्लस के निवेश से जो प्रगति की है, यह आश्चर्यजनक रही है. इतनी सीधी उंगली से इतना ज्यादा घी निकालने का काम किसी और देश ने किया हो तो कृपया नाम बताएं.
नेहरू नहीं होते तो हम या तो जापानी टूथपेस्ट खरीद रहे होते या हमारे वकीलों और प्रोफेसरों को कोई हुकूमत धान के खेत में अनुभव प्राप्त करने के लिए भेज देती. नेहरू के बिना हमारी रोजमर्रा की जिंदगी यहां भी अलग होती.
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