भारत में राजनीतिक दल आरटीआई के दायरे में क्यों नहीं आ रहे हैं?
बीते कुछ दिनों में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने कई बड़े मामलों में अपना फैसला सुनाया है. इन्हीं में से एक मामला था जिसके तहत चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया का दफ्तर भी आरटीआई के दायरे में लाना था. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया और अब सीजेआई का दफ्तर भी आरटीआई के दायरे में आ गया है. लेकिन क्या कभी राजनीतिक दल भी आरटीआई के दायरे में आएंगे एक महत्वपूर्ण सवाल है.
13 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने यह फैसला सुनाया कि भारत के मुख्य न्यायाधीश का दफ्तर भी लोगों के प्रति जवाब दे है. इस फ़ैसले में सबसे अहम बात शायद यह रही कि न्यायिक स्वतंत्रता और जवाबदेही को साथ-साथ लेकर चलने की बात कही गई. अदालत ने यह माना है कि न्यायपालिका खुलेपन और पारदर्शिता की मांग करती है. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद यह सवाल भी उठाना जरूरी हो गया कि क्या भारत के राजनीतिक दल भी आरटीआई के दायरे में कभी आएंगे . देश में आरटीआई कानून साल 2005 में लागू हुआ था इस कानून के तहत कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका से जुड़ी कोई भी जानकारी आम आदमी हासिल कर सकता है. इस क़ानून की मदद से आम नागरिक सरकारी पदों पर बैठे लोगों से सवाल पूछ सकते हैं.
आपको जानकर हैरानी होगी कि सालाना करीब 60 लाख से ज्यादा आरटीआई की एप्लीकेशन जाती हैं. इन एप्लीकेशन में लोक सरकार से जुड़ी हुई जानकारी हासिल करते हैं सरकारी योजनाओं की जानकारी लेते हैं. इस क़ानून की मदद से लोगों ने सत्ता में बैठी सरकार के कामकाज पर सवाल उठाए हैं और कई मामलों में भ्रष्टाचार भी उजागर किया है. यह कानून सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाने के लिए बनाया गया था और यही कारण है कि कई सरकारी दफ्तर इस कानून की जद में आने से बचते रहे. सुप्रीम कोर्ट मानता है कि सरकार की सूचनाओं को हासिल करना लोगों का मौलिक अधिकार है सुप्रीम कोर्ट में ही सीबीआई के दफ्तर को इस कानून की जद से बाहर रखा था हालांकि अब मुख्य न्यायाधीश का दफ्तर भी आरटीआई के दायरे में आ गया है.
राजनीतिक पार्टियां आरटीआई के दायरे से बाहर क्यों?
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद एक और सवाल खड़ा होता है कि आखिर देश की राजनीतिक पार्टियां आरटीआई के दायरे से बाहर क्यों हैं. क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने जो ताजा फैसला सुनाया है उसमे उसने कहा है, सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने तीन अलग-अलग मामलों पर एक मिला-जुला फ़ैसला सुनाया है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में माना है कि सीजीआई का दफ़्तर सुप्रीम कोर्ट से अलग नहीं है. अब क्योंकि सुप्रीम कोर्ट लोक प्राधिकरण के तहत आता है तो इसलिए सीजीआई का दफ़्तर भी उसमें शामिल है और यही वजह है कि वह भी आरटीआई के अंतर्गत आएगा. कोर्ट के इस फैसले से जाहिर तौर पर उस मांग को ताकत मिली है जिसके तहत दी लगातार कहा जा रहा था कि राजनीतिक पार्टियां भी आरटीआई के दायरे में आनी चाहिए. साल 2013 में सीआईसी ने महत्वपूर्ण आदेश देते हुए देश की छह प्रमुख राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई क़ानून के तहत जनता के प्रति जवाबदेह बताया था. राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई से बाहर रहने का बहुत फ़ायदा मिलता है.
आरटीआई से बाहर होने का राजनीतिक पार्टियों को मिलता है फायदा
देश की सभी राजनीतिक पार्टियां आरटीआई के दायरे से बाहर होने का फायदा उठाती हैं. इसके ज़रिए उन्हें टैक्स में छूट मिलती है, सस्ती दरों पर ज़मीन मिलती इतना ही नहीं ये राजनीतिक दल अपने घोषणापत्र में शामिल वादों को पूरा करने के बदले लोगों से बड़ी मात्रा में फ़ंड भी जुटाते हैं. हर साल भारत के लाखों लोग राजनीतिक पार्टियों को फंड देते हैं चंदा देते हैं. तो क्या इन लोगों को यह अधिकार नहीं होना चाहिए कि वह यह जाने कि राजनीतिक पार्टियों ने इस फंड का इस्तेमाल कैसे किया? क्या आम लोगों को यह जानना जरूरी नहीं है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी जिससे उन्होंने वोट किया है वह किन उसूलों को ध्यान में रखते हुए नीतियां बनाएगी, संसद में बिलों का किस आधार पर समर्थन या विरोध करेगी और अपने उम्मीदवारों का चयन कैसे करेगी.
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आपको जानकर हैरानी होगी कि 2013 में जब सीआईसी ने राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई के दायरे में लाने की बात कही थी तब सभी दलों ने एकजुट होकर उस आदेश को मानने से इनकार कर दिया था. यह बहुत दुर्लभ थी कि किसी मुद्दे पर सभी राजनीतिक दल एकमत हो गए थे. तमाम दल सीआईसी के आदेश की अवमानना करते हुए ना तो उसे अदालत में चुनौती दे रहे हैं और ना ही आरटीआई के तहत पूछे जाने वाले सवालों के जवाब देते हैं. इस इलैक्टोरल बॉन्ड आने के बाद लोग यह पता भी नहीं कर सकते कि राजनीतिक दलों को कौन फ़ंडिंग कर रहा है, यानी लोगों को यह जानकारी ही नहीं है कि जिस दल को वो वोट डाल रहे हैं उसे पैसा कहां से मिल रहा है. तो अगर राजनीतिक दल आरटीआई के दायरे में आते हैं तो देश की राजनीति में भी पारदर्शिता आएगी और शायद इसी लिए सभी दल एकजुट होकर इसका विरोध कर रहे हैं.