17वीं लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार खत्म हो गया है. बीजेपी, कांग्रेस और क्षत्रपों ने अपनी अपनी रणनीति बनाकर चुनाव प्रचार किया. बीजेपी ने जहां प्रचार में पानी की तरह पैसा बहाया तो कांग्रेस ने प्रचार में बेहद सतर्कता से खर्चा किया. लेकिन यूपी में गठबंधन को चुनाव प्रचार काफी सादा-सादा रहा. इसके लिए पीछे पैसे की कमी थी या कोई रणनीति
उत्तरप्रदेश में गठबंधन का इलेक्शन कैंपेन बहुत हाई-प्रोफाइल तरीके से नहीं चलाया गया और विज्ञापन की बजाय रैलियों और लोगों से संपर्क की रणनीति पर भरोसा किया गया. इसके पीछे मायावती और अखिलेश की क्या रणनीति थी. क्या 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव से सपा कुछ सीख गई थी क्या समाजवादी पार्टी ने 2017 में जो आक्रामक कैंपेन किया था और बड़े विज्ञापन जारी किए थे उससे हुए नुकसान को अखिलेश समझ गए थे. क्या अखिलेश यादव भी अपनी सीनियर साथी मायावती के पदचिह्नों पर चलकर अपने वोटबैंक पर काम कर रहे थे.
गठबंधन का सादगी भरा प्रचार
जब यूपी में सपा-बसपा का अप्रत्याशित गठंबधन हुआ था तो सियासी पंडितों ने तमाम कयास लगाए थे. लेकिन दोनों ही पार्टियों ने करीब डेढ़ महीने तक बेहद संयम से कैंपेन किया और कैंपेन को शांतिपूर्ण तरीके से खत्म किया है. दोनों दलों के नेताओं के बीच कहीं कोई विवाद या पसोपेश की स्थिति देखने को नहीं मिली. और दोनों पार्टियों के कार्यकर्ता भी संयमित दिखाई दिए. इस बार अखिलेश यादव ने कोई स्लोगन भी नहीं गढ़ जैसे ‘मन से हैं मुलायम’ और ‘उम्मीद की साइकिल’ . बेहद सादा अंदाज में कैंपेन खत्म हुआ और इसके नफा नुकसान का आंकलन 23 मई को ही होगा कि इसमें गठबंधन कितना कामयाब हुआ.
क्या ये गठबंधन की कोई रणनीति थी ?
ये सवाल हो सकता है लेकिन दोनों नेताओं जनसंपर्क पर ज्यादा ध्यान दिया. रैलियां की और अपने वोटबैंक को ट्रांसफर करने पर फोकस किया. अगर महागठबंधन के नेताओं की 20 साझा रैलियों को छोड़ दें तो बीएसपी, एसपी और आऱएलडी का प्रचार लो-प्रोफाइल रहा. ज्यादा होर्ड़िंग नहीं लगाए गए. सोशल मीडिया पर ज्यादा पैसा नहीं खर्च किया गया. शायद दोनों राजनीतिक पार्टियां ये सोच रही थी कि उनका जो वोट है वो प्रचार से प्रभावित नहीं होगा. 23 मई को पता चलेगा कि गठबंधन की रणनीति कितनी कारगर रही क्योंकि कई सर्वे यूपी में गठबंधन को बढ़त लेता हुआ दिखा रहे हैं.