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लोकसभा चुनाव 2019: राष्ट्रीय पार्टियों पर भारी पड़ रहे क्षेत्रिय दल

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लोकसभा चुनाव 2019 में राष्ट्रीय पार्टियों को क्षत्रपों को तगड़ी चुनौती मिल रही है. दिलचस्प बात ये है कि बीते दो दशकों से जहां राज्यों में राष्ट्रीय पार्टियों का वोट शेयर लगातार घट रहा है वहीं क्षेत्रीय पार्टियों का वोट शेयर बढ़ रहा है.

देश में चुनाव दर चुनाव क्षेत्रीय पार्टियों का रसूख बढ़ता जा रहा है. दक्षिण के राज्यों में हालात ये हैं कि राष्ट्रीय पार्टियां क्षेत्रिए पार्टियों के बगैर कुछ नहीं कर सकतीं. अविभाजित आंध्रप्रदेश में 1982 में एनटी रामाराव ने तेलुगु लोगों को ‘आत्म गौरवम्’ का नारा दिया था और इसी के बल पर उन्होंने बड़ी जीत दर्ज की थी. पीएम मोदी को भी क्षेत्रियता को भुनाना पड़ा और उन्होंने अपने गृहराज्य में ‘गुजराती अस्मिता’ की बात की. 2015 में लालू नीतिश ने जो ‘महागठबंधन’ बनाया उसमें बिहारी सम्मान का जिक्र हुआ. ओडिशा में नवीन पटनायक के लिए वोट लेकर ने वाली भावना ‘बीजू की जननायक की छवि’ के कारण है. क्षत्रपों की ताकत को आप इस तरह समझ सकते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी की लहर में भी कर्नाटक के अलावा बीजेपी दक्षिण के किसी भी राज्य में और ओडिशा और पश्चिम बंगाल में कुछ नहीं कर पाई.

कम नहीं हुआ वोट शेयर

क्षत्रपों की ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कांग्रेस और बीजेपी के वोट स्विंग के बावजूद क्षेत्रीय पार्टियां 212 सीटों पर 2009 में 46.7 फीसदी प्राप्त करती हैं और 2014 में ये 46.6 फीसदी होता है. यानी बहुत मामूली गिरावट आई. यहां आपको ये भी समझना होगा कि कांग्रेस जैसे जैसे कमजोर हुई है क्षेत्रिए पार्टियों की ताकत बढ़ी है. एआईएडएमके, बीजेडी, तृणमूल कांग्रेस और आंध्रप्रदेश की तीन क्षेत्रीय पार्टियों ने अपने-अपने इलाकों में जो पकड़ बनाई है वो ये साबित करती है कि राष्ट्रीय पार्टियां यहां उनके आगे नतमस्तक हैं. इतना ही नहीं डीएमके और समाजवादी पार्टी ने भी अपना वोट शेयर बरकरार रखा. मायावती की पार्टी भले की शून्य पर रही लेकिन उसे भी 19 फीसदी वोट मिले थे. तो कुल मिलाकर कहा ये जा सकता है कि क्षत्रप अपनी पूरी ताकत से उभर रहे हैं और राष्टीय पार्टियों के लिए ये चुनौती है.

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