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भारत की अर्थव्यवस्था को ‘शेर’ बनाने वाला वित्त मंत्री

1 फरवरी को मोदी सरकार ने अपना आखिरी बजट पेश किया. वित्त मंत्री पीयूष गोयल ने कई एलान किए. फिर चांहे वो किसानों को सालाना 6 हजार रुपये देने की योजना हो, मजदूरों को पेंशन देने का एलान हो या फिर आयकल में दोगुनी छूट देने की घोषणा हो. इन एलानों के बाद चारों तरफ चर्चा होने लगी कि ये एक पूर्ण बजट ना होकर भी एतिहासिक बजट कहा जाएगा.

लेकिन क्या आप जानते हैं कि अब तक का सबसे धांसू वित्त मंत्री कौन है. कौन सा वित्त मंत्री है जिसने भारत की अर्थव्यवस्था को शेर बनाया. विषम हालातों में कौन से वित्त मंत्री ने दुनिया को दिखाया था कि भारत में दम है. तो चलिए आपको बताते हैं. ये ये बजट पेश किया था पूर्व प्रधानमंभी मनमोहन सिंह ने. जीहां 1991 में जब भारत दिवालिया होने की कगार पर था तब मनमोहन सिंह ने करिश्मा किया था. 1991 का बजट ऐसा बजट था जिसने अर्थव्यवस्था के दरवाज़े खोले, नौकरियां पैदा कीं और विदेशी निवेश के लिए रास्ते साफ किए. हां ये बात और है कि उसने कप्शन को भी जन्म दिया.

साल 1991, उस साल मई में चुनाव थे. चुनाव प्रचार के वक्त ही राजीव गांधी की हत्या कर दी गई थी लिहाजा चुनाव में कांग्रेस सहानुभूति लहर के चलते 244 सीटें मिलीं. कांग्रेस निर्दलीय सांसदों और झामुमो की मदद से केंद्र में सरकार बनाई. पीवी नरसिम्हा राव पीएम बने और रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाया गया. उस साल देश भुगतान के संकट से जूझ रहा था. हालात यहां तक खराब हो गए थे कि तेल खरीदने के लिए सिर्फ 21 दिन की रकम बची थी.

बतौर वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी पहली प्रेस कॉन्फ्रैंस में ये साफ कर दिया कि उनके पास कोई जादू नहीं है. लिहाजा उनसे ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती. मनमोहन सिंह तुरंत अपनी टीम तैयार की, मोंटेक सिंह अहलूवालिया को वित्त आयोग का उपाध्यक्ष बनाया, राकेश मोहन जो उद्योग मंत्रालय में मुख्य सलाहकार बनाया, दीपक नायर जो सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार नियुक्त किया गया. उस वक्त देश के पास सिर्फ एक रास्ता था कि वो विदेशों से उधारी ले लेकिन ये मुमकिन नहीं था क्योंकि कोई भारत कर्ज देने का तैयार नहीं हुआ.

इस नाजुक वक्त में मनमोहन सिंह ने विश्व बैंक का सहारा लिया और आरबीआई का सोना विश्व बैंक में गिरवी रखकर उधार पैसे लिए. विश्व बैंक ने पैसा तो मनमोहन सिंह को दे दिया लेकिन उसके बाद उनके साथ जो हुआ वो उन्होंने शायद सोचा नहीं था. जैसे ही विपक्ष को इस बात की खबर हुई कि मनमोहन सिंह ने सोना गिरवी रखकर कर्ज लिया है विपक्ष उनपर टूट पड़ा. मनमोहन सिंह से कहा कि उन्होंने देश कि इज्जत गिरवी रख दी है. नरसिम्हा राव की सरकार के ऊपर कई आरोप लगे लेकिन उन्होंने मनमोहन सिंह से कुछ नहीं कहा.

एमआरटीपी अधिनियम, इंस्पेक्टर राज, लाइसेंस राज  और समाजवादी आर्थिक मॉडल में उत्पादन खत्म हो रहा था. हर चीज सरकार तय कर रही थी. उद्योगपति को सैकड़ों लाइसेंस लेने के बाद उद्योग लगाने की अनुमति मिलती थी. कामगारों की यूनियनें थीं लिहाजा उद्योग पनप ही नहीं पा रहे थे.

सालाना प्रति व्यक्ति आय सिर्फ 11,535 रुपये थी, जीडीपी लगभग 11 लाख करोड़ रुपये. थी, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश सिर्फ़ 13,00 करोड़ रुपये और विदेशी मुद्रा भंडार 58,00 करोड़ रुपये. वहीं 18,000 करोड़ रुपये का निर्यात था और लगभग 24,000 करोड़ रुपये का आयात था.

अब आप अंदाजा लगाइए कि क्या हालता थे अर्थव्यवस्था के. ऐसे में मनमोहन सिंह ने क्या किया ये जानना अहम है,

जैसे ही ये बदलाव हुए, भारत की 84 करोड़ आबादी की ओर दुनिया दौड़ पड़ी. रोजाना अखबारों में आबादी का जिक्र होता और इस जिक्र ने दुनिया को दिखाया कि भारत बड़ा बाजार है. इन कदमों का नतीजा ये हुआ कि औद्योगिक उत्पाद बढ़ने लगा और नई नौकरियों का सृजन हुआ. आर्थिक माहौल में बदलाव आया और बैंकों ने रीटेल सेक्टर में ब्याज दरें गिराकर आम लोगों को लोन देने शुरू कर दिया.

विदेशी कंपनियां भारत पर टूट पड़ी तो देशी कंपनियों को शिकायत हो गई. कुछ लोग उदारीकरण का स्वागत कर रहे थे तो कुछ लोगों ने इसका विरोध किया और कहा देश एक बाद फिर विदेश कंपनियों को गुलाम हो जाएगा. 1991 में जो कुछ मनमोहन सिंह ने किया उसकी वजह से मध्यम वर्ग का दायरा बढ़ा. मनमोहन सिंह की कई मामलों में आलोचना होती रही है लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं है कि उन्होंने जिस दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था को बचाया था वो सबसे महत्वपूर्ण वक्त था.

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