1992 के बाद से अयोध्या सियासत के केंद्र में है. सरकारें इससे बनी हैं और गिरी हैं. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में क्या राम मंदिर अहम भूमिका निभाएगा ये सवाल अब और अहम हो गया है. सुप्रीम कोर्ट में लगातार मिल रही तारीखों की वजह से संत और हिंदू समाज खफा है. मोदी सरकार ने साफ कह दिया है कि पहले संवैधानिक रास्ते ही है. उसके बाद देखा जाएगा.
ऐसे में क्या चुनाव से पहले राम मंदिर बन सकता है. ये सवाल इसलिए अहम हैं क्योंकि अब एक तरफ संत समाज सुप्रीम कोर्ट और कांग्रेस पर अरोप लगा रहा है तो वहीं दूसरी तरफउच्चतम न्यायालय ने राजनीतिक रूप से संवदेनशील अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद मामले पर सुनवाई के लिए शुक्रवार को पांच सदस्यीय एक नई संविधान पीठ का गठन किया.
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले के खिलाफ शीर्ष अदालत में 14 अपीलों को देख रहा है. इस अपीलों में 4 दीवानी मुकदमों पर सुनाए गए अपने फैसले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 2.77 एकड़ जमीन को तीन पक्षों–सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला के बीच बराबर-बराबर बांटने का आदेश दिया था.
वैसे इस मामले की सुनवाई 10 जनवरी से होनी थी लेकिन मूल पीठ के सदस्य जस्टिस यूयू ललित ने 10 जनवरी को मामले की सुनवाई से खुद को अलग कर लिया था. दरअसल इस मामले के एक पक्षकार सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से पेश हुए वरिष्ठ वकील राजीव धवन ने कोर्ट में कहा था कि संविधान पीठ के जज जस्टिस यूयू ललित ने वकील रहते बाबरी मस्जिद से संबंधित एक अवमानना मामले में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की ओर से पैरवी की थी.
यू यू ललित के इस केस से खुद को अलग करने के बाद इस मामले की अगली सुनवाई के लिए 29 जनवरी की तारीख तय की थी. अब नई पीठ का गठन हो गया है इसमें नई पीठ में प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एसए नजीर को शामिल किया गया है. जस्टिस एनवी रमण भी नई पीठ का हिस्सा नहीं हैं. वो इससे पहले पीठ में शामिल थे. जस्टिस भूषण और जस्टिस नजीर नए सदस्य हैं.
आपको बता दें कि जस्टिस भूषण और जस्टिस नजीर उस पीठ का हिस्सा थे जिसकी तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता कर रहे थे और जिस तीन सदस्यीय पीठ ने 27 सितंबर 2018 को 2:1 के बहुमत से शीर्ष अदालत के 1994 के एक फैसले में की गई एक टिप्पणी को पांच सदस्यीय संविधान पीठ के पास पुनर्विचार के लिये भेजने से मना कर दिया था. शीर्ष अदालत ने 1994 के अपने फैसले में कहा था कि मस्जिद इस्लाम का अभिन्न हिस्सा नहीं है.