सबसे पहले तो आपको बता दें कि मोदी सरकार सिर्फ सवर्ण हिंदुओं को ही 10 फीसदी का आरक्षण नहीं देने जा रही. बल्कि इसे अनारक्षित वर्ग में आर्थिक आधार पर प्रस्तावित पहला जातिहीन आधारित आरक्षण इसे कहना चाहिये.
मोदी सरकार के इस फैसले के दायरे में 26% सवर्ण हिंदू, 60% मुसलमान, 33% ईसाई, 46% सिखों, 94% जैन, 2% बौद्ध, और 70% यहूदी आएंगे.
कांग्रेस, सीपीआईएम, मायावती और रामविलास पासवान जैसे तमाम पार्टियां और नेता इसीलिए आर्थिक आधार पर अनारक्षित वर्ग में आरक्षण के पक्षधर रहे है. लेकिन यहां सवाल ये है कि आरक्षण का फायदा होगा भी या फिर ये सिर्फ लॉलीपॉप है. क्योंकि अगर नौकरियां ही नहीं होंगी तो फिर ऐसे आरक्षण का फायदा क्या है.
इससे पहले आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की कोशिश ओबीसी वर्ग के साथ की गई थी. इसमें क्रीमी लेयर को आरक्षण के फायदे से बाहर रखने का प्रावधान था लेकिन फर्जी आय प्रमाण पत्र बनाकर लोगों ने इसका फायदा उठा लिया. और क्रीमीलेयर ने भी इसका फायदा उठा लिया. अब सरकार का यही फॉर्मूला अनारक्षित वर्ग के ऊपर इस्तेमाल किया जा रहा है. पहले ओबीसी को इस तरह का आरक्षण सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर दिया गया था. आरक्षित वर्ग की जो शर्तें तय की गई हैं उसके मुताबिक 8 लाख वार्षिक आय का एक स्लैब फिक्स किया गया है.
यहां समझने वाली बात ये भी है कि सरकार 8 लाख सालाना आय वाले को गरीब मान रही है. अब बताइए भारत की 70% आबादी 50 हजार से 4.5 लाख वार्षिक आय पर गुजारा करती है, यानि 105 करोड़ लोग गरीबी रेखा के दायरे में आते थे. अब 8 लाख वाले स्लैब को लेकर अगर हम ये आंकड़ा देखें तो 130 करोड़ के आसपास बैठेगा. कुल मिलाकर सरकार ने सबको आरक्षण दे दिया है और पूरे देश में कुल 5 या 6 करोड़ लोग ही होंगे जो आरक्षण के दायरे में नहीं आएंगे.
IDFC और IRD की रिपोर्ट कहती है कि 2013-14 में देश की जाति आधारित गांवों की जमीन के बंटवारे में ओबीसी के पास 44.2%, अनुसूचित जाति के पास 20.9%, अनुसूचित जनजाति के पास 11.2% जमीन है. जबकिं दूसरे धर्मों और जातियों के पास 23.7% जमीन अधिग्रहित है. और धार्मिक आधार पर देखें तो देश की 85% जमीन हिंदुओं, 11% मुस्लिमों, बाकी 4% दूसरे धर्मों के पास है. अब अगर 10% आरक्षण को स्वीकृति मिलती है तो देश के 95% लोगों को आरक्षण नहीं मिल पाएगा.
2016 के इनकम टैक्स के आकड़ों बताते हैं कि भारत में 91% लोगों की सालाना आमदनी 10 लाख आमदनी है. अगर 8 लाख वाले लोगों की संख्या का अनुमान लगाये तो बमुश्किल 2% के आसपास ऐसे लोग हैं. यहां एक और पेंच ये है कि हिंदू धर्म से दूसरे धर्म में धर्मपरिवर्तन किए गए लोगों को आरक्षण नहीं मिलता है. लेकिन भारत में संवैधानिक तौर पर ये प्रावधान है कि धर्म तो बदला जा सकता है लेकिन जाति नहीं बदली जा सकती. पिछले सेंसस के आंकड़े बताते हैं कि ऐसे दलितों की संख्या 0.8% है यानी ये लोग हिंदू धर्म छोड़कर दूसरे धर्म में शामिल हो गए. पूरे देश में ऐसे लोगों की संख्या करीब 17 लाख है.
वहीं बात करें बुद्ध और ईसाई धर्मों की तो इन धर्मों में पिछड़ा जैसा कुछ होता नहीं है. देश में 84 लाख बुद्धिस्ट में से 75 लाख बिना आरक्षण वाले है, जबकि 2.8 करोड़ ईसाइयों में से 66% धर्म परिवर्तित करके गये है, यानि 1.9 करोड़ भी आरक्षण का लाभ नही पाते हैं. यानी देश में करीब साढ़े पांच करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें आरक्षण नहीं मिलता है. यानी देश की करीब चार या पांच फीसदी आबादी को आरक्षण नहीं मिल पा रहा है.
अब यहां पेंच ये है कि क्या सरकार इसकी कोई गारंटी दे रही है कि कोई फर्जी आय प्रमाण पत्र बनाकर आरक्षण का फायदा नहीं लेगा. चलिए ये मान लिया जाए कि सरकार ऐसा सिस्टम लाएगी की ज़रूरतमंदों को ही इसका फायदा मिलेगा तो कुछ अहम बातें हैं जिनके बारे में जानना जरूरी है. अगर राज्यों की तरह केंद्र ने भी 50% से ज्यादा आरक्षण देने का फैसला किया है तो देश के संसाधनों में वंचितों का प्रतिनिधित्व 60% होगा, जबकि योग्यता की तर्ज पर प्रतिनिधित्व करने वालों की संख्या केवल 40% ही होगें.
सरकार के पास इसकी कोई गारंटी नहीं है कि आरक्षण का फायदा जरूरतमंद लोगों तक पहुंचेगा. हर वर्ग में संसाधनयुक्त लोग हैं जो वंचितों तक सुविधाओं को पहुंचने नहीं देते. और सरकार के पास इसका कोई तोड़ नहीं है. इंडिकापोस्ट और गिन्नी रिपोर्ट के आंकड़ों की माने तो
1922 में आजादी से पहले 1% आबादी 22% सम्पत्ति पर कब्ज़ा जमाये बैठी है, इनमें अंग्रेज व्यापारी भी थे, फिर नेहरू की सोशलिस्ट नीतियों से लेकर इमरजेंसी तक यानी 1980 तक शीर्ष 1% आमीर आबादी के पास सिर्फ 6% संसाधनों की जागीर थी. 2019 में शीर्ष 1% से भी कम आबादी का 40% से भी ज्यादा संसाधनों पर कब्जा है.
इन आंकड़ों का एक पहलू ये है कि 70 करोड़ के करीब आबादी के पास सिर्फ 10% या उससे कम संसाधन मौजूद हैं. विड़बना ये है कि इस खाई को पाटने के लिए कुछ नहीं किया गया. राजनैतिक लाभ के लिए उठाए गए कदम देश का भला नहीं कर सकते. और अगर ये मान भी लें कि देश को बदलने के लिए ये कदम उठाए गए हैं तो क्या कोई बताएगा कि जब नौकरियां सृजन ही नहीं किया गया है तो आरक्षण से क्या हासिल होगा.