हद हो गई है, राफेल का तमाशा बना कर रख दिया है इन नेताओं ने. जिसे देखो राफेल, राफेल की रट लगाए है. विपक्ष इस बात को लेकर बेचैन है कि कहीं ये मुद्दा उनके हाथ से निकल न जाए और सरकार को इस बात से चैन नहीं पड़ रहा है कि कहीं राफेल बोफोर्स न हो जाए और सरकार की साफ-सुथरी छवि को लील जाए. लेकिन आपको नहीं लगता है कि राफेल पर सरकार को कम से कम कुछ बुनियादी सवालों के जवाब तो देने ही चाहिए. भले ही सुप्रीम कोर्ट ने कह उन सभी याचिकाओं को खारिज कर दिया हो जो राफेल में गड़बड़झाले की वजह से डाली गईं हों लेकिन पाक साफ सरकार को इस उन सवालों के जवाब देने ही चाहिए जिनके जवाब नहीं मिल रहे हैं. अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद लगा था कि मामला निपट जाएगा लेकिन नया पेंच ये फंस गया और विपक्ष इन फैसले के उस बिंदू को पकड़ लिया जिसमें कोर्ट ने कहा था कि रफाल सौदे की ऑडिट सीएजी ने की थी और इसकी रिपोर्ट संसद की लोक लेखा समिति यानी पीएसी को भेजी गई थी. इस बिंदू को पकड़ कर याचिकाकर्ता प्रशांत भूषण, अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा कहने लगे कि इस तरह की कोई रिपोर्ट पीएसी के पास भेजी ही नहीं गई. इनका तो छोड़ो राहुल गांधी ने तो पीएसी के अध्यक्ष और कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को लेकर प्रेस कांफ्रेस कर दी और कहा कि “पूछिए खड़गे जी से कि इन्होंने कोई ऐसी रिपोर्ट भेजी है क्या?”
तो अब सीधा सवाल है कि क्या देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का ये कर्तव्य नहीं बनता कि वो कमसे कम विपक्ष के लिए नहीं देश की जनता को इन दो सवालों के जवाब दे दें जिससे कि सब झंझट खत्म हो जाए. और रोज़-रोज़ की इन प्रेस कांफ्रेस से दोनों पार्टियों को छुटकारा मिले. समझ नहीं आता सरकार क्यों इस बात का जवाब क्यों नहीं दे रही कि राफेल को बढ़ी हुई कीमतों में क्यों खरीदा ? रक्षा मंत्री क्यों नहीं बता रहीं हैं कि एचएएल के सामने अनिल अंबानी को तरजीह क्यों दी गई ? वैसे तो बहुत से सवाल हैं लेकिन इन दो सवालों का जवाब काफी कुछ साफ कर देगा. हालांकि सरकार ने इन दो सवालों के जवाब दिए हैं लेकिन वो पच नहीं रहे. तो कृपया करके जवाब ऐसे दिए जाएं जो पच जाएं.
वैसे तो आप कई बार राफेल के बारे में पढ़ और सुन चुके होंगे. चलिए एक बार बिन्दूवार राफेल के बारे में कुछ बातें स्पष्ट कर दे देते हैं.
सवाल नंबर-1: विपक्ष इसे घोटाला क्यों कह रहा है ?
राहुल गांधी और प्रशांत भूषण जैसे लोग कह रहे हैं कि जो विमान करीब 526 करोड़ में खरीदा जाना था उसे 1500 करोड़ से ज्यादा में खर्च खरीदा गया. राफेल का सौदा करीब 54 हजार करोड़ का है. विपक्ष पूछ रहा है कि विमान महंगा कैसे हो गया. कीमत साढ़े तीन गुना कैसे बढ़ गईं. अब सवाल इस सवाल पर जवाब ये देती है कि मोदी सरकार कि 2008 में एक समझौता हुआ इसलिए हम कीमतें सार्वजनिक नहीं कर सकते. सरकार के वजीर कहते हैं कि भारत सरकार ने ये समझौता फ्रांस की सरकार के साथ किया था. लेकिन जिस सरकार के साथ भारत सरकार ये समझौता होने की बात कह रही है उसके मुखिया ओलांद कह चुके हैं कि ऐसा कोई समझौता नहीं हुआ. विपक्ष का कहना है कि नए सौदे में टैक्नोलॉजी ट्रांसफर क्यों नहीं किया गया और क्यों महंगा जहाज खरीदा गया?
सवाल नंबर-2: ये ऑफसेट क्या है और इसका प्रावधान क्या है ?
ऑफसेट क्लॉज का मतलब है कि सौदा हासिल करने वाली कंपनी को इसकी कुल रकम का एक निश्चित हिस्सा भारत में निवेश करना होता है. राफेल के सौदे में निवेश का ये हिस्सा है पचास फीसदी. यानी दसां रफाल सौदे की आधी रकम भारत में निवेश कर रही है. अब चुंकि दसां अनिल अंबानी की कंपनी के साथ यहां काम कर रही है इसलिए इसका फायदा उन्हें हो रहा है. अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस को रफाल सौदे के ऑफसेट से करीब 21,000 करोड़ का फायदा होगा. यानी ये जो सौदा हुआ उसका बड़ा हिस्सा अनिल अंबानी की कंपनी में ही लग रहा है. अब राहुल गांधी कह रहे हैं कि मोदी सरकार ने अनिल अंबानी को फायदा पहुंचाने के लिए उनकी कंपनी को ऑफसेट बनाया. ओलांद भी कह चुके हैं कि मोदी सरकार ने इस सौदे के साथ यह शर्त रख दी थी कि ऑफसेट कॉनट्रैक्ट अनिल अंबानी की कंपनी को ही मिलना चाहिए. इसके विपक्ष को उत्साह से भर दिया.अब इस कंपनी के बारे में भी आपको बता दें कि रिलायंस डिफेंस की शुरूआत 10 अप्रैल, 2015 को नए रफाल सौदे की घोषणा के ठीक 12 दिन पहले 28 मार्च, 2015 को हुई. सौदा फाइनल होने के 13 दिन बाद रिलायंस डिफेंस ने एक और सहयोगी कंपनी रिलायंस एयरोस्ट्रक्चर लिमिटेड बनाई. इसी कंपनी में रफाल सौदे के तकरीबन 21,000 करोड़ रुपये लगने हैं. अब विपक्ष कह रहा है कि जब अनिल अंबानी की चार प्रमुख कंपनियों पर बैंकों का तकरीबन एक लाख करोड़ रुपया कर्ज है. अनिल अंबानी के पास कोई अनुभव नहीं है इस क्षेत्र में फिर भी उन्हें ऑफसेट क्यों बनाया गया. अब चुंकि जब ये सौदा करने नरेंद्र मोदी फ्रांस दौरे पर गए थे तो उनके साथ अनिल अंबानी भी गए थे. लिहाजा विपक्ष की बात में वजन बढ़ जाता है.
सवाल नंबर-3: राफेल और राफेल सौदा है क्या ?
जवाब: राफेल एक लड़ाकू विमान है जिसे फ्रांस की कंपनी दसां एविएशन बनाती है. भारत इस कंपनी से 36 रफाल लड़ाकू विमान खरीद रहा है. ये सौदा 2016 में हुआ और विमानों की पहली खेप 2019 में भारत आनी शुरू होगी. इस सौदे के अतीत में जाएं तो 2006 में रक्षा मंत्रालय ने लड़ाकू विमानों को खरीदने की प्रक्रिया की औपचारिक शुरुआत की थी और 2011 तक वायु सेना ने अलग-अलग कंपनियों के विमानों ट्रायल किया था. ट्रायल के बाद वायुसेना को दो कंपनियों के विमान पसंद आए जिसमें दसां और यूरोफाइटर थीं. दोनों ने अपना प्रस्ताव भारत सरकार के पास रखा और सरकार ने तय किया कि वो दसां से विमान खरीदेगी. इस कारण ये था कि दसां ने कम कीमत पर विमान देने की पेशकश दी थी. इस सौदे के तहत 126 विमान खरीदे जाने थे. इनमें से 18 कंपनी देने वाली थी और 108 एचएएल में असेंबल होने थे. यानी 108 विमानों के पुर्जे डसॉल्ट कंपनी देती और उन्हें विमान की शक्ल देने का काम एचएएल को करना था. उस वक्त सौदा ये हुआ था कि एचएएल को टेक्नॉलॉजी ट्रांसफर भी होना था. विवाद इस बाद को लेकर था कि मोदी सरकार ने इस सौदे को पलटा क्यों ?
सवाल नंबर-4: क्या वाकई में सौदे में नियम ताक पर रखे गए?
राहुल गांधी कह रहे हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई रक्षा सौदे में रक्षा खरीद परिषद से सहमति न ली जाए, सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति से पूछा ना जाए, रक्षा मंत्री को भी पता न हो. क्योंकि अप्रैल, 2016 में फ्रांस की यात्रा पर नरेंद्र मोदी के रवाना होने के कुछ घंटे पहले ही तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर को इस सौदे की जानकारी दी गई थी. उस वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब फ्रांस रवाना होने वाले थे उससे ठीक पहले 8 अप्रैल, 2015 को तत्कालीन विदेश सचिव एस जयशंकर ने कहा था कि राफेल सौदा तकनीकी जटिलताओं वाला है और इस पर बातचीत चल रही है और पीएम की यात्रा इस दिशा में नहीं है. यानी विदेश सचिव को पता नहीं था प्रधानमंत्री फ्रांस में ये सौदा करने वाले हैं. यहां विपक्ष की ओर से ये भी कहा जा रहा है कि अनिल अंबानी सौदे के तकरीबन महीने भर पहले 3 मार्च, 2015 को प्रधानमंत्री से मिले थे और उन्होंने अनिल अंबानी को रक्षा क्षेत्र में कारोबार करने की सलाह दी थी. इसके बाद उन्हें ऑफसेट चुना गया. अनिल अंबानी को रक्षा उत्पादों का कारखाना लगाने के लिए मिहान में 289 एकड़ जमीन सिर्फ 64 करोड़ रुपये में आवेदन करने के 10 हफ्ते में मिल गई और तर्क ये दिया गया कि अनिल अंबानी की कंपनी के पास उत्पादन के लिए पर्याप्त जमीन थी. लेकिन जमीन का आवंटन सौदे के बाद हुआ.